GYSS के अनुभवी अधिकारी तथा हमारे आदर्श बड़े भाईया श्री मनोज गोप जी का एक छोटा सा प्रयास को में इस ब्लॉग के माध्यम से उजागर करता हुआ ।
।। आइए हम उनके विचारों पर नजर डालते हैं ।।
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हमारे समाज के सभी भाई-बंधुओं, सुधीजनों और विद्वानों को नमस्कार* 🙏🙏🙏🙏🙏
मै हमेशा कुछ न कुछ विषयों को लेकर आप लोगों के बीच अपनी जिज्ञासा को प्रकट करता हूँ।
इससे हो सकता है किन्ही सज्जनों को मेरे शब्दों या वाक्यों से आहत पहुंचती हों।
परंतु मेरा वैसा कोई इरादा नहीं होता है, बस कुछ जानकारी प्राप्त करने की जिज्ञासा मन मे जग उठती है तो आप सबों के बीच साझा कर लेता हूँ.. *मगदा समाज एक अनार्य जनजाति* ...
*_विद्वानों ने कह रखा है, जिस समाज की अपनी कोई सांस्कृतिक पहचान नही होती, वो अन्य समाज का सांस्कृतिक गुलामी करता है। या, जो समाज अपनी सांस्कृतिक मूल पहचान को लज्जावश या भूलवश छिपाती या उत्थान के प्रयास नही करती, उस समाज का सामाजिक और संस्कृतिक पतन अवश्यम्भावी है। ... दुर्भाग्यवश उपर्युक्त दोनों कथन मगदा गौड़ समाज पर एकदम उपयुक्त बैठती है।_*
गौड़ समाज ने अपने सांस्कृतिक क्रियाकलापों को सामाजिक उदासीनता के कारण क्षीण कर दिया है और समाज के कर्ता-धर्ता भी इन विषयों पर मौन धारण किये हुए हैं।
_यथा- विवाह, बंधु आगमन, कुटुम्ब सम्मेलन के समय होने वाले *गीत बदाबदी*, समाज का एकमात्र वाद्य यंत्र *चांग* के विलुप्त होने पर चिंतन का अभाव या उसके पुनर्जीवन पे उदासीन रवैया, गौड़ समाज के मूल पर्व- *पूस, रोजो, गोमा, नुआखाई* आदि को मूल स्वरूप में मनाने या उनके प्रचार-प्रसार के प्रति उदासीन रवैया, मांगे पर्व ( क्योंकि इस पर्व में भी गौड़ समाज की मुख्य भागेदारी है ) के प्रति दुराग्रह ( उदासीनता )।_
_चरवाहे की पहचान को छिपाना ( हालांकि अब ये लाभ का व्यवसाय नही रहा, और सामाजिक जीवनशैली को उच्च स्तर पर ले जाने के लिए भी ये व्यवसाय अब उचित नही रहा, पर ये *शाश्वत सत्य है कि चरवाहा होना हमारी मूल पहचान है, जैसे:- लोहार, तांती, महली आदि की पहचान उनके कार्यों से है* )।...._ इतिहास गवाह है कि उपर्युक्त पर्व-त्यौहार गौड़ समाज के मूल पर्व-त्योहार हैं, कालांतर में अन्य समाज और समुदाय के बहुत से पर्व-त्यौहारों को आत्मसात कर अपनी संस्कृति में स्वयं ही कुठाराघात किया है।.... हमारे समाज का पर्व-त्यौहार और हमारा टोटेमिक व्यवस्था *( पेड़-पौधों या जानवरों के नाम नाम पर किलि-गोत्र का होना )* और समाज मे प्रचलित हमारा पुस्तैनी व्यवसाय ( चरवाहा ) हमें जनजातीय पहचान दिलाता है। ये लज्जा का विषय नही अपितु मूल पहचान का विषय है कि हम चरवाहे समुदाय से हैं, यह हमारा पेशा या कर्म रहा है, जब समाज कर्म आधारित था। .... सरकारी अध्ययन कहता है कि जिस समाज की अपनी अलग एवं _पुरातन सांस्कृतिक पहचान यथा – नाच-गान, पर्व-त्यौहार, रीति-रिवाज, जन्म-मरण के संस्कार कथित सभ्य समाज से भिन्न होते हैं, और जो कि स्वयं में अद्वितीय होते हैं, उसे ही जनजातीय समाज का दर्जा हासिल होता है।_ ....
*मगदा गौड़ समाज के प्राचीनतम पर्व-त्यौहारों के अलहदा दस्तूर, गीत-संगीत, रीति-रिवाज, जन्म-मरण, विवाह संस्कार इन सारी अहर्ताओं को पूर्ण करता है ( यह समाज के लिए दुर्भाग्य ही है कि हम, अपने को सभ्य दिखलाने के लिए अपने मूल रिवाजों, दस्तूरों, संस्कारों और पर्व त्यौहारों को भूलते जा रहे हैं, या अपने आने वाली पीढ़ी को मूल रूप में हस्तांतरित नही कर पा रहे है। यह स्थिति अपने वंशजों के प्रति गुनाह है )।....*
*_ उपर्युक्त अहर्ताओं के कारण सन् 1991 में मगदा समाज को जनजाति मानते हुए अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल किया गया था। जिन्हें कुछ गलतफहमियों या हठ के कारण दुर्भाग्यवश लगभग 2 वर्ष बाद ही ही आदेश को निरस्त कर जनजातीय दर्जे को वापस ले लिया गया। और ये भी सत्य है कि तत्कालीन नियुक्तियों में बहुत से लोगों ने लाभ लिया और आज भी उसी प्रमाण-पत्र की बदौलत सरकारी नौकरियों में कार्यरत हैं।*
*_.... हमारा मगदा समाज कब और कैसे गौड़ से गोप और गोप से ग्वाला बना,पता नही।_*
_अशिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण हमारा समाज सम्भवतः उस वक्त विरोध नही कर पाया। या झूठे सामाजिक प्रपंच ( स्वयं को कृष्णवंश या नंदवंश का समझने की, जिसकी की कोई वैज्ञानिक और ठोस मान्यता नही है ) ने उसे विरोध करने से रोक दिया। वजह जो भी हो, लेकिन इसका दंश हमारा समाज आज तक झेल रहा है। जबकि वास्तव में 'यादव' और 'ग्वाला' से हमारा दूर-दूर तक नाता नही। बस, व्यवसाय ( पेशा/ कर्म ) की लगभग समानता है और कुछ नही ( जैसा कि संथाल, मुंडा, हो, उरांव जनजाति का पेशा कृषि है, पर वो एक तो नही न हैं )।_
हमारे समाज के कुछ जागरूक और कर्मठ लोग प्रयासरत है कि हम अपनी पहचान को पुनः स्थापित करें और फिर से स्वयं को एक जनजाति के रूप में पहचान दिलाएँ। यदि हमारे कथित सभ्य और जागरूक समाज इसे अब जनजाति के रूप में या यों कहें अपने मूल पहचान के अनुरूप स्थापित नही कर पाया तो, हमारी आने वाली पीढ़ियां हमे कभी माफ नही करेगी _*( जिस तरह 'ग्वाला' विषय पर हम अपने पूर्वजों को कोसते हैं...! )हमे गहन चिंतन-मनन करना होगा, शर्म त्यागना होगा और एक निष्कर्ष पर पहुंचना होगा। जनजाति कोई गाली नही अपितु एक पहचान है, जिसके हम हकदार हैं। इस विषय के क्रियाशील समूह को हमे सहायता देने ही होगा, चाहे अंजाम जो हो।*_
यहाँ एक संदर्भ देना आवश्यक है कि :– *कुड़मी ( महतो ) समाज मगदा समाज से अधिक शिक्षित और संपन्न है। उनका तर्क एवं मत है कि 1932 से पहले वे भी जनजाति के रूप में सूचिबद्ध थे। किन्ही कारणवश उन्हें सूची से हटा दिया गया। अब पुनः वे संघर्षरत है स्वयं को अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध करने के लिए।*
_उन्हें किसी प्रकार की लज्जा नही तो हमारे समाज को किस बात का अभिमान हैं, जबकि हमारा मगदा समाज ज्यादा वंचित, ज्यादा पिछड़ा है )।...._
बचपन से मैं बुजुर्गों एवं वरिष्ठ लोगों से एक बात सुनते आ रहा हूँ कि एक समय *हमारे बड़े-बुजुर्गों के संघर्ष एवं एकता से तत्कालीन बिहार सरकार के वक़्त हमें कुछ आरक्षण/सुविधाओं का लाभ दिलवाया था। किंतु अब वो किसी कारणवश जारी नहीं रहा पाया,जिसके फलस्वरूप अब हमारे समाज के पढ़े-लिखे, होनहार व काबिल लोगों को उनके काबिलियत के अनुरूप मुकाम हासिल नहीं कर पा रहे हैं।*
_मुझे लगता है कि यदि उस समय (बिहार सरकार के समय) हमारे समाज को मिली सुविधा/आरक्षण अभी भी कायम रहता तो शायद आज हमारे समाज की दिशा और दशा कुछ और होता।_
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_हमारे समाज के भी भाई-बहन, पढ़-लिख कर अपनी काबिलियत के बदौलत अच्छी मुकाम तक पहुंचते।_
उस वक़्त मिली सुविधा को हमसे या हमारे समाज से वंचित करने का कारण भी स्पष्ट नहीं नज़र आता.......
*_1. क्या हम कोई साजिश का शिकार तो नहीं हुए?_*
*_2.यदि शिकार हुए तो क्यों?_*
*_3. क्या अब हम लोग अपने समाज को मिली वो सुविधा पुनः उपलब्ध करवा सकते हैं?_*
*_4. क्या इस कार्य या मुहिम के लिए हम लोग तैयार हो सकते हैं?_*
*_5. तत्कालीन बिहार सरकार के वक़्त मिली सुविधाओं को झारखंड सरकार के सामने प्रस्ताव के रूप में अपना मांग रख सकते हैं?_*
यदि हाँ,
तो हमें पूर्ण रूप से , मानसिक व आर्थिक रूप से सबल एवं संघठित हो कर चलना होगा।
.........अन्ततः यह स्पष्टीकरण भी आवश्यक है कि सबके अपने-अपने विचार होते हैं। यह मानव स्वभाव है कि सभी इत्तफ़ाक न रखे। मैंने तो अपना विचार रख दिया है, चूँकि विचारशून्य मानव पशु या मृत समान होता है। इसलिये समाज संबंधित विषयों पर चिंतन-मनन आवश्यक है। इस विषय पर गहन चिन्तन-मनन किया जाए ये अन्यन्त आवश्यक है। वरना हमारा समाज अपनी पहचान को तरस जाएगा, सुविधाओं से वंचित दबा-कुचला रह जाएगा .......🙏🏻🙏🏻🙏🏻
Q. दोस्तों क्या हमें मनोज भैया के विचारो का सम्मान नही करना चाहिए ?
Q. अगर सहमत या सम्मान करते है तो उनके विचारों को हर एक गोप तक पहुंचाने की जिम्मेवारी आपकी और हमारी है ताकि आपके ही जैसे उन सबको भी गोप से सम्बन्धित जानकारी मिल सके ? अपने गोप बंधु तक पहुंचाने का
अनेकों साधन है जेसे की :- Facebook , WhatsApp , Instagram Etc.
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